Zenab rehan

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बारहवाँ अध्याय





आगे बढ़ने के पूर्व यहाँ कुछ विचार कर लेना जरूरी है। 6, 7 श्लोकों में जो बातें कही गई हैं उन्हीं का उपसंहार आठवें में है। न कि कोई नई बात। यही है साकार भगवान की अनन्य भक्ति, जिसका उल्लेख ग्यारहवें अध्यानय के अंत में आया है और बारहवें के शुरू में जिसके बारे में ही प्रश्न हुआ है। मगर यह पूर्ण भक्ति है, उसकी आखिरी निष्ठा या स्थिति है। यह भी तो कही चुके हैं कि ग्यारहवें के अंतिम श्लोक में जो कुछ कहा गया है वह पूर्ण भक्ति ही न हो के पहले की सीढ़ियाँ भी उसी में आ गई हैं, हालाँकि उनका इतना स्पष्ट वर्णन होना वहाँ असंभव था। अतएव प्रश्न के बाद उनकी स्पष्टता अपने आप यहाँ हो जाती है और बाद के तीन (9-11) श्लोक यही काम करते हैं। इनमें 9वाँ पहली बात कहता है कि यदि पूर्ण भक्ति की दशावाला मन न हो पाया हो और इधर-उधर दौड़ता हो तो अभ्यास ही उसे काबू में करने का उपाय है। इस अभ्यास की बात पहले खूब ही आ चुकी है। लेकिन यदि वह बहुत ही गंदा हो और इतना चंचल हो कि अभ्यास भी न हो सके, तो दसवें श्लोक में बाद की सीढ़ी के रूप में कहा गया है कि 'यत्करोषि' (9। 27) के अनुसार भगवदर्पण बुद्धि से कर्म ही करते जाओ। फिर तो समय पा के अभ्यास को योग्यता आई जाएगी। किंतु यदि दुर्भाग्य से यह भी न हो सकने वाला हो और मन अत्यंत पतित हो, तो आखिरी बात यह है कि सभी भले-बुरे कर्मों के फलों को ही भगवान के अर्पण करके बेफिक्र बन जाओ। यही बात ग्यारहवें श्लोक में है। यदि ग्यारहवें अध्या य के अंतिम श्लोक के 'मत्कर्मकृन्मत्परम:' का यहाँ के दसवें के 'मत्कर्मपरम:' से मिलान करें तो पता चल जाएगा कि उस श्लोक में इन सीढ़ियों का समावेश जरूर है। इस प्रकार मन की निरंतर साकार भगवान में जोड़ देने की पूर्ण भक्ति के नीचे क्रमश: तीन सीढ़ियाँ हैं - अभ्यास, भगवदर्पण कर्म और कर्मफलों को ही भगवदर्पण करना। यही कारण है कि इन श्लोकों में क्रमसूचक पद न रहने पर भी हमने वैसा ही अर्थ किया है।

ये तीनों क्रमश: नीचे की सीढ़ियाँ कैसे हैं यह जान लेना भी जरूरी है। यह तो मोटी बात है कि उधर से हटने पर बार-बार मन को खींच के लगाना ही होगा। दूसरा रास्ता हई नहीं। इसे सभी लोग यों ही समझ भी सकते हैं। मगर जब मन इतना गंदा हो कि भगवान की ओर बिलकुल जाए ही नहीं, तो अभ्यास क्या करेंगे खाक? वज्र की धरती को मामूली कुदाल से खोद के उधर ही पानी बहाने का यत्न जिस तरह बेकार होता है वैसा ही यह भी है। कुदाल से तो वज्र कटे-टूटेगा ही नहीं उलटे कुदाल ही टूटेगी और परिश्रम बेकार होगा। फिर भी वैसी दशा में क्रियाओं में तो मन जाएगा ही। फिर चाहे भली में जाए या बुरी में। अतएव अब यह कर सकते हैं कि उन सभी क्रियाओं को, कर्मों को ही भगवदर्पण करें और इस प्रकार कर्मों के द्वारा ही मन को वहाँ तक पहुँचाने का यत्न करें; यदि सीधे नहीं जाता है। और अगर यहाँ भी वह चारों पाँव चित हो के वैसा करने से इनकार करे तो? ठीक भी है। कर्मों के करने में पहले से ही ऐसा खयाल हो जाना कि यह भगवान की पूजा है, आसान नहीं है। सो भी जब मन बहुत ही पापी और पतित है। कर्मों के कर लेने पर तो यह बात होई नहीं सकती। क्योंकि तब तो उन पर हमारा कोई अधिकार रही नहीं जाता। वे तो हाथ से छूटे हुए तीर हो गए। फलत: कर्मों के पहले या उनकी दौरान में भी यह खयाल होना प्राय: असंभव है। इसलिए अंत में यही बताया है कि फलों को ही भगवान के समर्पण करो। असल में कर्म करने के पहले तो जोश रहता है। इसीलिए कुछ भी सूझता ही नहीं। मगर कर चुकने पर ठंडक होती है और पश्चात्ताप होने लगता है कि उफ, ठीक नहीं किया। यह भी आम बात है कि पतित मन वाले ज्यादातर बुरे ही कर्म करते हैं। इसलिए पीछे दिमाग दुरुस्त होने पर सोच लिया कि चलो इनके फलों को ही भगवान को समर्पित करें। इस तरह भले फल तो शायद ही थे जो गए, मगर बुरे तो प्राय: सभी थे और सभी गए - खत्म हो गए। इसी आशय से 'सर्वकर्म फलत्यागं' कहा है। सर्व कहने से बुरे-भले सभी आ जाते हैं। इस प्रकार चक्कर काट के फल और कर्म के द्वारा मन को वहाँ तक पहुँचाते हैं। यही अंतिम सीढ़ी है।

कहते हैं कि किसी वेश्या का कोई नौकर था। वह प्रतिदिन सुंदर-सुंदर फूल उसके लिए चुन लाता था। एक दिन रास्ते में फूल लिए आ रहा था। अकस्मात उनमें दो-एक फूल नीचे गिर पड़े। उसने जो उन्हें उठाने की कोशिश की तो देखा कि फूल विष्ठा पर ही जा पड़े हैं। अब तो विवश था और कलेजा मसोसकर रह गया। फिर कुछ सोच के बोला, 'विष्णवे स्वाहा'। कभी सुना था कि विष्णु को अर्पण करने से पुण्य होता है। उसने जब कोई उपाय न देखा तो हार के पुण्य ही लूटना चाहा। कहानी तो बताती है कि उसी के करते उस पतित को भी बैकुंठ का दर्शन मिला। मगर हमें उससे मतलब नहीं है। हमें तो यहाँ इतना ही कहना है कि वेश्या के नौकर की ही तरह पीछे हार के कर्मों के फलों को भगवान के अर्पण किया जा सकता है। यह कोई असंभव बात नहीं है। हाँ, है यह सबसे नीचे की, छोटी और आखिरी बात।

अब हमें प्रसंगवश उन लोगों से एक प्रश्न करना है जो साकार भगवान की भक्ति को ही दरअसल सबसे बड़ी चीज गीता के मत से बताने पर तुले बैठे हैं। हमने गीता के ही श्लोकों के आधार पर, जो इसी अध्या य के इसी मौके के ही हैं, कम से कम चार प्रकार की भक्तियों को दिखाया है। इन्हें तो वह भी मानेंगे ही। क्योंकि यह तो हमारी अपनी मनगढ़ंत चीजें हैं नहीं। तो अब वही बताएँ कि इनमें कौन-सी भक्ति सबसे ऊँची है जिसका ढिंढोरा गीता ने पीटा है? ज्ञान और समाधि की अपेक्षा जो ऊँची चीज उन्हें जँचती है वह इनमें कौन-सी है? चारों तो हो नहीं सकती हैं। और अगर चारों ही हों, तो गजब होगा। क्योंकि सांख्य, ज्ञान या समाधि की अपेक्षा उस आखिरी भक्ति को भी श्रेष्ठ ठहराने की हिम्मत जिसे हो वह सचमुच बहादुर है, दिलेर है! अगर यह कहा जाए कि सबसे ऊपर वाली श्रेष्ठ है तो क्यों? गीता ने तो सबों को ही एक ही सिलसिले में गिनाया है। यह भी तो नहीं कहा है कि इनमें फलाँ से ही हमारा आशय है।

लेकिन अगर हमारी कही बात मानी जाए तब तो वस्तुस्थिति का सवाल होता ही नहीं। तब तो मार्ग का सवाल ही रहता है और अधिकारियों के हिसाब से ये चारों ही अच्छी हैं - जो जिसके योग्य हो, जिसका अधिकारी हो वह उसे ही करे। क्योंकि जनसाधारण के अनुकूल चारों ही हैं। इनमें भी जो सबसे नीचे की है वही सबसे ज्यादा लोगों के लिए संभव होने से उस दृष्टि से वही सबसे श्रेष्ठ है, इस कहने में कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि वह ज्ञान की जगह लेने या सचमुच उससे भी ऊँचा दर्जा लेने तो जाती नहीं। यहाँ तो काम चलाने की ही बात है।

इसी अभिप्राय से आगे का - 12वाँ - श्लोक भी इस मौके पर ठीक-ठीक आ बैठता है। यों तो इस श्लोक की बड़ी फजीती की गई है। हरेक टीकाकार ने अपने ही खयाल के अनुसार इसे बुरी तरह घसीटा है। किंतु हमारे जानते जो इसका सीधा-सादा अर्थ है वह यों है। फलत्याग के द्वारा मन को थोड़ी-सी शांति और थोड़ा-सा चैन मिलना शुरू हो जाता है। जो धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। असल में जोश में आ के नासमझ लोग जितनी मुश्तैदी से भले-बुरे काम कर बैठते हैं, पीछे जोश ठंडा होने पर उतनी ही ज्यादा उन्हें बेचैनी और घबराहट होती है, अशांति होती है। क्योंकि उन कर्मों के भयंकर परिणाम आँखों के सामने नाचने जो लगते हैं। मगर ज्योंही उनने यह समझा कि फल तो भगवदर्पण हो गए, कि उन्हें खामख्वाह चैन और शांति की प्राप्ति फौरन ही हुई। यह स्वाभाविक बात है। चाहे पीछे कुछ हो, मगर तत्काल मन की घबराहट और उसका उद्वेग तो जाता रहा। और एक बार ऐसा होते ही उनने जो इसका तत्काल मजा चख लिया तो फिर यही बात रह-रह के करने लगे। इस तरह उलटे धक्के से मन की शांति होते-होते ध्याीन की योग्यता होती है। फिर यह ध्याान चाहे सीधे भगवान में मन लगा के हो, या भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करके हो। यह तो आदमी की दशा और योग्यता पर ही निर्भर करता है। इसलिए ध्याान के भीतर भगवदर्थक कर्म भी आ गया। क्योंकि उसके द्वारा भी मन की एकाग्रता ही तो होती है। हाँ, सीधे ही तो और अच्छी बात हो। इस तरह जब एकाग्रता हुई और ध्याकन का रास्ता खुला, तो जो बात पहले दिल में बैठती ही न थी वह भी बैठने लगी। अनन्य भावना से भगवान की भक्ति करें, चाहे निराकार की हो, या साकार की - निराकारवाली को ही आत्मदर्शन या समदर्शन भी कहते हैं - यह बात पहले तो दिल में बैठती ही न थी। मगर अब मन पर काबू होने से बैठी। यही है ज्ञान। इसके बाद ही फौरन अभ्यास की सीढ़ी आ जाती है। क्योंकि यह ज्ञान होते ही एकाएक मन पूर्ण स्थिर तो हो जाएगा नहीं। अतएव अभ्यास तो करना ही होगा। इस प्रकार अभ्यास करते-करते अनन्य भक्ति आप ही हो जाएगी। यदि साकार में मन टिकाने का अभ्यास होगा तो उसकी नहीं तो निराकार की ही।

इस प्रकार देखने से पता चल गया कि अभ्यास से ज्ञान, ज्ञान से ध्यांन और ध्यायन से भी कर्मों के फलों के त्याग को जो बड़ा या अच्छा बनाया है वह केवल इसीलिए कि वह क्रमश: नीचे की ही सीढ़ियाँ हैं। फलत: आम लोगों के काम की चीजें वही हैं। न कि सचमुच ही उनका दर्जा ऊँचा है। ऐसा मानना तो निरा पागलपन ही न हो के इससे पूर्व के श्लोकों के उलटा जाना भी हो जाएगा। हाँ, हमने जो कुछ कहा है उसे मानने में ही यह बात न होगी। इसी के साथ 10वें श्लोक में 'क्योंकि' के अर्थ में जो 'हि' आया है वह भी दुरुस्त सिद्ध होगा। क्योंकि हमारे रास्ते से तो 12वाँ पहले के तीन श्लोकों की ही बातों की पुष्टि करता है न? 'त्यागाच्छान्तिरन्नतरम्' - 'त्याग के अनंतर ही शांति' यह भी हमारे अर्थ में ठीक-ठीक लग जाता है। इतना ही नहीं। अभ्यास के बाद निराकार और साकार दोनों की ही अनन्य भक्ति हो सकती है, हमारे इस कथन का 12वें के बाद वाले श्लोकों से भी पूरा संबंध जुट जाता है। क्योंकि उनमें जिस दशा का और जिस समदर्शन का विवरण 13 से 19 तक के श्लोकों में है उसमें और 'विद्याविनयसंपन्ने' (5। 18-21) वाले समदर्शन में जरा भी अंतर नहीं है। 'विद्याविनय' वाला आत्मज्ञानी का ही है यह तो सभी मानते हैं। इसलिए यहाँ भी उसी को मानने में कोई उज्र नहीं हो सकता है। साकार भक्ति का भी पर्यवसान उसी में है; क्योंकि उस समदर्शन के बिना तो मोक्ष होई नहीं सकता। यही कारण है कि स्थितप्रज्ञ, भक्त और गुणातीत - तीनों ही - के वर्णन एक से ही हैं।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञाना द्ध्या नं विशिष्यते।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥ 12 ॥

क्योंकि अभ्यास से अच्छा - काम का - तो ज्ञान है, ज्ञान से भी अच्छा ध्याणन है (और) ध्या'न से भी अच्छा - कारगर - है कर्मों के फलों का त्याग। (क्योंकि इस) त्याग से फौरन ही शांति मिलती है। 12।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।

निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥ 13 ॥

संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मे मद्भक्त: स मे प्रिय:॥ 14 ॥

हमारा जो योगी भक्त किसी पदार्थ से द्वेष न करे, सबके साथ मैत्री और करुणा का भाव रखे, ममता और अहंता - माया-ममता - से रहित हो, सुख और दु:ख में एक रस रहे, क्षमाशील हो, बराबर संतुष्ट रहे, मन को काबू में रखे, दृढ़ निश्चयवाला हो और मन एवं बुद्धि को हममें ही जिसने अर्पित कर - बाँध - दिया हो वही हमारा प्रिय है। 13। 14।

यस्मान्नीद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥ 15 ॥

जिससे न तो लोग (किसी भी तरह) उद्विग्न हों, जो लोगों से भी उद्विग्न न हो सके और जो हर्ष, क्रोध, भय और उद्वेग - घबराहट या परेशानी - (इन सबों) से रहित हो वही मेरा प्रिय है। 15।

अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।

सर्वारंभपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥ 16 ॥

जो मेरा भक्त बेफिक्र या बेपरवाह, पवित्र, चतुर (और) पक्षपात रहित (हो), जिसमें भय या परेशानी न हो (और) जो सभी प्रकार के संकल्पों से सर्वथा रहित हो वही मेरा प्रिय है। 16।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:॥ 17 ॥

जिस भक्त को न तो किसी चीज से खुशी हो और न रंजिश, जिसे न तो कोई चिंता हो न आकांक्षा और जो बुरे-भले सभी से नाता तोड़ चुका हो वही मेरा प्रिय है। 17।

सम: शत्रौ च मि त्रे च तथा मानापमानयो:।

शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:॥ 18 ॥

तुल्यनिंदास्तुतिर्मौनी संतु ष्टो येन केनचित्।

अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥ 19 ॥

जो शत्रु और मित्र में सम है - जिसके शत्रु-मित्र हई नहीं, मान-अपमान में भी जो सम है - विचलित नहीं होता, शीत-उष्ण, सुख-दु:खादि में भी जो एक ही तरह रहे, जिसे कहीं भी आसक्ति न हो, निंदा और स्तुति जिसके लिए एक-सी हों, जिसकी जबान काबू में हो, (आवश्यकता होने पर कामचलाऊ) जोई मिल जाए उसी से जो संतुष्ट हो जाए, जिसका कोई घरबार न हो और जो अचल बुद्धिवाला हो, वही मनुष्य मेरा प्रिय है। 18। 19।

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥ 20 ॥

जो भक्तजन मेरी ऊपर बताई इन धर्मयुक्त (एवं) अमृततुल्य बातों के अनुसार श्रद्धापूर्वक चलते और मेरे सिवाय अन्य किसी की परवाह नहीं करते वह मेरे अत्यंत प्रिय हैं। 20।

यहाँ 13वें श्लोक में जो मैत्र और करुण शब्द हैं वह 'मैत्री करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदु:खपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम्' (योग. 1। 33) के अनुसार मैत्री तथा करुणा गुणवालों के ही वाचक हैं। जैसे साबुन से कपड़े की मैल हटाते हैं वैसे ही चित्त की मैल हटाने और उसे न आने देने के ही लिए ये दोनों गुण माने गए हैं। यदि सुखिया के साथ मैत्री न हो तो ईर्ष्याा हो सकती है। इसी तरह दुखिया पर करुणा न हो तो दु:ख से द्वेष हो सकता है। यही दोनों भारी मैल हैं।

इसी प्रकार उद्वेग का अर्थ है घबराहट। जिसके आचरण या रहन-सहन से औरों को तथा औरों के कामों से जिसे परेशानी जरा भी न हो वही सच्चा भक्त है।

सर्वारंभपरित्यागी का अर्थ है किसी भी भले-बुरे काम का संकल्प न करे। क्योंकि संकल्प के बाद जो कामना होती है वही फँसाती है।

उदासीन के मानी हैं, 'कोई मरे कोई जिए, फक्कड़ घोल बताशा पिए' यानी दुनिया के झमेलों का जिस पर कोई असर न हो - जो किसी ओर न झुके।

यद्यपि इन श्लोकों में सम शब्द दोई बार आया है और उसी के अर्थ में तुल्य एक बार आया है; तथापि अंत के सात श्लोक समदर्शन का ही चित्रण करते हैं और यही है आत्मज्ञान। इस अध्या य में प्रतिपादित भक्ति का रहस्य तो बताई चुके हैं और वही इसका विषय है।

इति श्री. भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्याय:॥ 12 ॥

श्री. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका भक्ति-योग नामक बारहवाँ अध्याेय यही है।





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